
मेवाड़ का सौभाग्य
बहुविवाह
बहुविवाह से हमेशा ही समस्याएं उठ खड़ी होती हैं-राजा-महाराजाओं के लिए महाराणा उदयसिंह के चौबीस पुत्र थे। प्रताप उनमें ज्येष्ठ था और के अनसार, राज्य का अधिकारी था। उदयसिंह की अठारह रानियों में प्रताप की माता ही सबसे बड़ी थीं। उदयसिंह ने प्रेम और मोह में फंसकर अपनी कर और नीति को भला दिया था, सामंतों ने प्रताप का साथ दिया। सामंतों का ही सर्वोच्च होता था और उन्होंने प्रताप को ही राज्य का उत्तराधिकारी माना।
उदयसिंह ने तो यह तय कर लिया था कि राज्य प्रताप को नहीं छोटे पत्र जगमाल को मिलेगा। इसका कारण था जगमाल की मां छोटी रानी भाटियाणी के प्रति उसका विशेष प्रेम। लेकिन वह जानता था कि इस निश्चय का बड़ा विरोध होगा। इसलिए अपने मन के फैसले को उसने गुप्त रखा।
उदयसिंह की मृत्यु

28 फरवरी 1572 को, उदयपुर से 16 मील उत्तर-पश्चिम, गोगुंदा में उदयसिंह की मृत्यु हुई। दाह-संस्कार के समय जगमाल के सिवा सभी उपस्थित थे। जगमाल की अनुपस्थिति सबको खटकी। मेवाड़ में यह रीति थी कि राजा का उत्तराधिकारी उसकी दाह-क्रिया में नहीं जाता था। उदयसिंह के एक अन्य पुत्र सगर से पूछा गया कि जगमाल कहां है तब उसने ऐलान किया ‘बैकुंठवासी महाराणा ने उसका राज्य का मालिक बनाया है। इस घोषणा की तत्काल प्रतिक्रिया हुई। उपस्थित सरदारों में से अक्षयराज सोनगरा सबसे पहले बोला। उसने रावत कृष्णदास और रावत सांगा से कहा, वे चुंडा के पोते हैं और उत्तराधिकारी का फैसला उनकी सम्मति से होना चार था। जब से चंडा ने अपना राज्याधिकार छोडकर मेवाड के महाराणा का तना किया था, ‘पाट’ (राज्य) के स्वामी महाराणा और ‘ठाट’ (राज्य प्रबंध) अधिकारी चंडा तथा उसके वंशधर माने जाते थे। राज्य-प्रबंध का मुख्य का की सम्मति से होता चला आता था। अक्षयराज ने चंडा के वंशजात इशारा किया था। अक्षयराज ने यह भी कहा कि ‘अकबर जैसा शत्र पीछे लगा हुआ छूट गया, मेवाड़ उजड़ रहा है, अब यह घर का बखेड़ा भी खड़ा 3 का मुख्य काम उन्हीं । के वंशजों से इसी ओर लगा हुआ है, चित्तौड़ खड़ा हुआ तो फिर इस राज्य की बर्बादी में क्या संदेह रहा ? सभी सरदारों के मन में कुछ ऐसे ही विचार थे। यह ताड़ कर रावत कृष्णदास और सांगा ने घोषणा की ‘पाटवी, हकदार और बहादुर प्रतापसिंह किस कसूर से खारिज समझा जाए ?’ प्रश्न क्या, यह उनका फैसला था।
जगमाल का राजतिलक
उधर जगमाल अपना राजतिलक करा रहा था और प्रताप मेवाड़ को सदा के लिए छोड़ देने की तैयारी कर रहा था। इस अपमान का बोझ उठाना उसको बहुत कठिन जान पड़ा। अपने अधिकार के लिए वह अपनी भूमि पर अपने बंधुओं का खून नहीं गिराना चाहता था, न ही ऐसे संकट के समय फूट के बीज बोना चाहता था। उसने सोचा वहां से चले जाना ही सर्वोत्तम होगा। जब उसकी आवश्यकता ही नहीं तो वहां क्यों रहा जाए ? लेकिन जाना जगमाल को पड़ा जो बिना अधिकार गद्दी पर बैठ गया था। उदयसिंह का दाह-संस्कार करने के बाद जब सरदार और संबंधी वापस आए तो उन्होंने जगमाल का हाथ पकड़कर उसको गद्दी से उठा दिया और प्रताप को बिठा दिया। उन्होंने जगमाल से कहा कि उसका स्थान राजगद्दी पर नहीं, राजगद्दी के सामने है। (मेवाड़ में महाराणा के भाई गद्दी के सामने बैठा करते थे।) जगमाल को जब राजगद्दी से उठाया गया तो उसने बदला लेने की ठानी। उसमें इतना साहस तो था नहीं कि खुलकर विरोध करता। वह मेवाड़ छोड़कर मुगलों की शरण में चला गया। अच्छा ही हुआ कि वह गद्दी से उतार दिया गया, नहीं तो शायद वह सारे मेवाड़ को मुगलों की नजर कर देता, और आज उसका इतिहास कुछ और ही होता। मेवाड़ का सौभाग्य जागा। उसको ऐसा शासक मिल गया जैसा उस परिस्थिति में चाहिए था। प्रताप को गद्दी पर बिठाने के बाद सामंतों को किसी प्रकार के विरोध का सामना नहीं करना पड़ा। उससे जाहिर है कि प्रताप की योग्यता और गुणों के बारे में सब लोग आश्वस्त थे, और उसे राज्य का उचित ही नहीं, उपयुक्त अधिकारी मानते थे।
गोगूदे में गद्दी पर बैठने के बाद राणा प्रताप राजधानी कुंभलगढ़ आ गए जहां उनका विधिपूर्वक राजतिलक हुआ। चित्तौड़ छोड़ने के बाद उदयसिंह चार महीने तक राजपीपला में रहा। वहां से उदयपुर चला गया था जहां बादशाही फौजें जब-तब हमला करने लगी थीं। इस कारण वह उदयपुर से भी चला गया और कुंभलगढ़ को उसने अपनी राजधानी बनाया। 1570 में, बादशाही फौजों का ज्यादा अच्छी तरह मुकाबला कर सकने के उद्देश्य से वह गोगूदे आ गया। इस तरह गोगुंदा मेवाड़ की अस्थायी राजधानी बन गया, और वहीं उदयसिंह का देहांत और प्रताप का राजतिलक हुआ।
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