

मेवाड़ का सिंहासन :
महाराणा प्रताप मेवाड़ के सिंहासन पर केवल पच्चीस वर्ष रहे, लेकिन इतने समय में ही उन्होंने ऐसी कीर्ति अर्जित की जो, देश-काल की सीमा को पार कर, अमर हो गई। वह और उनका राज्य वीरता, बलिदान और देशाभिमान के पर्याय बन गए । यों तो मेवाड़ पहले ही राजपूत राज्यों में अग्रणी था। मेवाड़ के राजाओं ने, अपने सामंतों और जनता के सहयोग से, ऐसी परंपराएं स्थापित कर दी थीं कि राज्य का छोटा क्षेत्रफल या जनसंख्या की कमी उसकी कीर्ति को बढ़ाने में बाधक नहीं बनी। ऐसे कठिन अवसर भी आए जब मेवाड़ का झंडा झुकता नजर आया। लेकिन मेवाड़ियों के पराक्रम और तेज से वह फिर से आकाश में फहराने लगा ।
यह मेवाड़ का सौभाग्य था कि एक के बाद एक योग्य और देशाभिमानी शासक उसकी गद्दी पर बैठे, यद्यपि बीच बीच में कुछ कमजोर राजा भी हुए । इस राज्य की स्थापना के लगभग डेढ़ हजार वर्ष बाद तक, यानी बाप्पा रावल के समय से ही यह क्रम चलता रहा और, महाराणा प्रताप के सिर्फ साठ वर्ष पहले, राणा सांगा ने मेवाड़ को कीर्ति के शिखर पर पहुंचा दिया। उसकी ख्याति राजस्थान को पार कर दिल्ली तक जा पहुंची। उससे भी दो पीढ़ी पहले राणा कुम्भा अपनी विजयों और निर्माण कार्यों के कारण मेवाड़ को एक नया गौरव प्रदान कर गया था। उसके शासनकाल में साहित्य और कला का भी असाधारण विकास हुआ। स्वयं राणा को भी लिखने का शौक था, और उसकी रचनाएं आज तक आदर से पढ़ी जाती हैं। उसके राज्य का वातावरण उच्च कोटि की कला और साहित्य के सृजन के अनुकूल था। ये उपलब्धियां एक पूरी परंपरा की देन थीं जिसका अनेक पीढ़ियां पोषण करती आ रही थीं।
इस दीर्घावधि में मेवाड़ के लोगों का जीवन अवश्य ही शांति और संतोष से भरपूर रहा होगा, नहीं तो इन क्षेत्रों की इतनी असाधारण उन्नति संभव न होती। इसका प्रमाण मेवाड़ियों के प्रीतिकर स्वभाव और उनके साहित्य और कला में मिलता है। डील-डौल में उठान की कमी को वे अपने दृढ़ पर मधुर स्वभाव से सहज ही पूरा कर लेते हैं। मेवाड़ का वातावरण सदा ही मधुर बना रहता है-इसका कारण है उसके निवासियों की प्रफुल्ल और उदार प्रकृति ।
मेवाड में दुर्ग और महलों में ही नहीं, सार्वजनिक उपयोग के कई स्थानों में भी चकित कर देनेवाली उत्कृष्ट कारीगरी देखने को मिलती है। कई इमारतो । खंडहर अपनी बचीखची सुंदरता को संजोए आज भी मौजूद हैं और इसके साथी हैं कि मेवाड केवल वीरों की भमि ही नहीं कलाओं का भी घर था। आक्रमणों और रक्तपात के बीच भी साहित्य और कलाएं फलती-फूलती रहीं, और साहित्यका तथा कलाकारों की साधना में विघ्न नहीं पड़ा। कल्पना कीजिए, मेवाड़ का वहन कितना वैभवशाली रहा होगा जिसमें विजयस्तंभ, जो आज भी हमारी प्राचीन स्थापना कला का श्रेष्ठ नमूना है, का निर्माण हुआ। उसी दुर्ग पर खड़ा कीर्तिस्तंभ इसका साक्षी है कि तब प्रशासन में इतनी उदारता थी कि अन्य राज्य और अन्य संप्रदाय के व्यक्ति को इसका निर्माण करने का अवसर दिया गया। इस विवाद में पड़ना बेकार है कि पहले विजयस्तंभ बना या कीर्तिस्तंभ। सच तो यह है कि दोनों साथ साथ खड़े आज भी मेवाड़ के राजाओं और प्रजा के बीच निकटता का परिचय देते हैं.
कालक्रम सदा एक-सा नहीं रहता। जहां राणा सांगा का शासनकाल मेवाड को इतना ऊंचा उठानेवाला था, वहां उसके भाग्य को पलटनेवाला भी सिद्ध हुआ। इतिहास ने करवट ली। वीर भूमि मेवाड़ के भाग्य का सूर्य डूबने लगा। प्रताप ने घटनाओं की प्रतिकूल धारा को, कुछ समय तक, अपनी सबल भुजाओं से रोकने की कोशिश की और अपनी गौरवपूर्ण परंपरा को गिरने से बचाया ।
राणा सांगा के बाद उसके पुत्र रत्नसिंह और विक्रमाजीत क्रमशः गद्दी पर बैठे । उदयसिंह को गद्दी मिलने से पहले मेवाड़ का शासन बनवीर के हाथों में रहा जिसे मेवाड़ के सामंतों ने ही गद्दी पर बिठाया था, और उन्होंने ही उसे उतारा भी । इन तीनों ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दी कि यह कहा जाने लगा कि अब चित्तौड़ के बुरे दिन आ गए। इन तीनों के शासनकाल घटनाओं से तो पूर्ण थे लेकिन गौरव से बिल्कुल शून्य ! उदयसिंह के गद्दी पर आते आते तो चित्तौड़ दुर्ग की अजेयता की ख्याति भी समाप्ति हो गई ।
जब उदयसिंह ने चित्तौड़ को, कठिन संघर्ष के बाद, अनाधिकार सत्ता हाथया लेनेवाले बनवीर के हाथों से छुड़ाकर अपना राजतिलक करवाया, तो प्रताप की आयु लगभग बारह वर्ष की थी। लेकिन उस समय मेवाड़ न तो संपन्न रह गया था न सुरक्षित। सारा प्रदेश भय से आक्रांत था। व्यवस्था बिगड़ी हुई थी। उदय के गद्दी पर बैठने के चार वर्ष के अंदर ही शेरशाह ने चित्तौड़ की ओर कूच दिया। परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि सीधा मुकाबला किया जा सकता। जब जहाजपुर तक पहुंच गया तो उदयसिंह ने चित्तौड़ के किले की चाबिया उस पहुंचा दीं। यह चतुराई काम आई। चित्तौड़ पर आक्रमण नहीं हुआ और उदयसिंह का अधिकार प्रायः वैसा ही बना रहा। चित्तौड़ में नियुक्त शेरशाह के प्रतिनिधि ने भी ज्यादा हस्तक्षेप नहीं किया। शेरशाह की मृत्यु के बाद तो उसे वहां से खदेड़ ही दिया गया। चित्तौड़ को इतना झुकना पड़ा तो राणा की आंखें भी खुल गईं। उसने अपनी नीति में कुछ बुनियादी परिवर्तन किए ।
अब तक खुले स्थान में स्थित एक किले की रक्षा के लिए सारे मेवाड को दांव पर लगा दिया जाता था। अब यह नीति त्याग दी गई। पहाड़ों से घिरे उदयपुर को, जो चित्तौड़ से कहीं अधिक सुरक्षित था, नई राजधानी बनाया गया। अरक्षित क्षेत्रों में रहनेवालों को लाकर उदयपुर के आसपास बसाया गया। निर्माण के नए नए काम हाथ में लिए गए और इस प्रकार मेवाड़ की प्रतिष्ठा फिर से बनाई जाने लगी। उदयसिंह के प्रयत्नों से मेवाड़ का गौरव चाहे न बढ़ा हो, लेकिन उसने अपने प्रदेश की सुरक्षा और शांति के लिए भरसक कोशिश अवश्य की ।
लेकिन शीघ्र ही अकबर ने मेवाड़ की सारी योजनाओं को जबर्दस्त धक्का पहुंचाया । मेवाड़ के बढ़ते हुए प्रभुत्व को अकबर सह नहीं सकता था । उसको परास्त किये बिना उसके साम्राज्य का वैसा स्वरूप भी नहीं बन सकता था जैसा वह चाहता था। मेवाड़ को दबाकर वह शेष राजपूतों को सबक भी सिखाना चाहता था। तब तक आमेर ने तो मुगल-सम्राट से संबंध स्थापित कर लिया था, लेकिन जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि उसके चंगुल में नहीं आए थे।
1567 में अकबर ने चित्तौड़ पर हमला किया :
इससे पहले उदयसिंह अपने परिवार और प्रमुख सामंतों सहित चित्तौड़ छोड़ चुका था । उसे पकड़ने के लिए अकबर ने अपने सैनिकों को भेजा, लेकिन राणा हाथ नहीं आया। चित्तौड़ को जीतना भी कठिन जान पड़ने लगा । दो महीने की घेराबंदी के बाद भी अकबर जब चित्तौड़ को आत्मसमर्पण के लिए विवश नहीं करा सका तो उसने किले के कमजोर हिस्सों को बारूद से उड़वा दिया। फिर भी किला हाथ नहीं लगा। लेकिन अचानक एक दिन किले का रक्षक जयमल अकबर की गोली का शिकार बन गया और मेवाड़ी सेना का भाग्य पलट गया। पत्ता के नेतृत्व में आखिरी हमले की तैयारी की गई। स्त्रियां और बच्चे जौहर की ज्वालाओं की भेंट हुए। 23 अक्तूबर को घेराबंदी शुरू हुई थी और 25 फरवरी को मेवाड़ी सैनिकों ने, किले का फाटक खोलकर, स्वयं ही उसे खत्म कर दिया। फिर तो घमासान लड़ाई हुई। लड़ाई क्या थी प्राणों की बाजी लगी थी। वीर मेवाड़ियों ने अपनी माताओं, बहनों और पलियों की तरह अपने आपको युद्ध के अग्नि कुंड में झोंक दिया। अकबर विजयी हुआ, लेकिन चित्तौड़ के चरणों में बैठे बैठे खीझ का जो गुबार उसके मन भर गया था वह अब निकला और बुरी तरह निकला। उसके आदेश से चित्तौड़ के तीस हजार निरीह नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया गया। जीत के बाद इस नर-संहार का कोई कारण नहीं था, इसलिए अकबर के यशस्वी चरित्र पर हमेशा के लिए यह कलंक लगा रह गया ।
जो भी हो, अकबर की दूरदृष्टि ठीक साबित हुई । चित्तौड़ के पतन के अंदर ही रणथम्भौर, जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर आदि आगे झुक गए । उनके अनुसरण में, राजस्थान के लगभग सभी को ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली । टॉड ने लिखा है कि हिन्दू समाज ने एक नया रूप प्राप्त कर लिया था । यमुना और गंगा के बीच मा. के बचे-खचे हिस्से चपचाप फिर से शक्ति संचय कर रहे थे । आम्बेर और की ताकत तो इतनी बढ़ गई थी कि मारवाड़ अकेला ही शेरशाह का मकाबला कर सका। चम्बल के दोनों किनारों पर कई छोटे-मोटे रजवाड़े सिर उठा कर ऐसे समय में सत्ता वापस पाने के लिए एक महापराक्रमी और प्रतिभावान आवश्यकता थी। राणा सांगा में ऐसे नेता के गुण थे । उसमें कोई ऐसी बार कि लोग सहज ही उसकी बात मान लेते थे । उसके कुल की श्रेष्ठता और उसकी अपनी महानता सारे देश में निस्संकोच स्वीकारी जाती थी। राणा सांगा को नेता मानने के पीछे रजवाड़ों का स्वार्थ भी था। सुदृढ़ नेतृत्व के अभाव में उनकी परंपरागत कुलीनता व्यर्थ जा रही थी। इसी प्रकार का नेतृत्व उन्हें सांगा के पौत्र प्रताप से भी प्राप्त हुआ होता यदि बीच में उदयसिंह न आ गया होता, अथवा प्रताप का समकालीन मुगल सम्राट अकबर की बजाय कोई कम पराक्रमी और कम नीतिकुशल व्यक्ति होता ।
अकबर सबसे महान मुगल शहंशाह था । अपने चरित्र और कार्यों से वह संसार के महान शासकों में गिना जाता है । ऐश्वर्य में भी उसकी बराबरी करनेवाला उस समय कोई नहीं था। वह साहसी, वीर, चतुर और योग्य था। उसको सफलता पर सफलता मिलती गई मानो उसमें कोई सिद्धिशक्ति हो ।
अकबर ने अपनी नीति बदली :
प्रताप के समय तक अकबर ने अपनी नीति बदल दी थी, विशेषकर राजपूत राजाओं के साथ अपने व्यवहार में । यथासंभव रक्तपात से बचना चाहता था। अपन अधीनस्थ राजपूत राजाओं को, उनके आंतरिक मामलों में, उसने काफा आजार दे रखी थी। अपने दरबार में उसने उन्हें मुगल सामंतों के बराबर का दजा सम्मान दिया था। इस नीति ने अकबर की आक्रमणकारी वृत्ति का सौजन्य का ऐसा बाना पहना दिया था कि उसके भुलावे से बचना उसका स बचन स कम कठिन नहीं था। उदयसिंह के समय में अकबर उदीयमान सूच था तो प्रताप के समय में वह मध्याह्नकाल के सूर्य के समान प्रचंड हो गया था .
एक ओर मेवाड़ की अधोगति और दूसरी ओर अकबर के जोश, चतुराई और , विवेक का मिला-जुला अभिमान । प्रताप को उसके भाग्य ने इन दोनों के बीच ला खड़ा किया । लेकिन प्रताप अकबर के खिलाफ लड़े और बराबर अड़े रहे . यही उनके चरित्र की महानता है। जिसे अकबर जैसा महापराक्रमी सम्राट भी नहीं झुका सका उसकी स्मति में आज सबके मस्तक श्रद्धा से झुक जाते हैं .
कर्नल जेम्स टॉड :
अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक के प्रताप अध्याय के आरंभ में कर्नल जेम्स टॉड ने उन परिस्थितियों का वर्णन किया है जिनका सामना प्रताप को शासन संभालते ही करना पड़ा था। उसने लिखा है कि प्रताप को एक अत्यंत उच्च और गौरवपूर्ण कुल की संचित कीर्ति और नाना उपाधियां तो विरासत में मिलीं, लेकिन न तो कोई राजधानी मिली और न साधनों का कोई जरिया। उनके संबंधी और सरदार पराजित होकर हिम्मत हार चुके थे। लेकिन प्रताप में जोश भी था और कुल का अभिमान भी। उन्होंने अपनी सारी शक्ति चित्तौड़गढ़ को और अपने कुल की खोई हुई प्रतिष्ठा को फिर से जीतने में लगा दी। शत्रु के खिलाफ संघर्ष में कूद पड़ने के पहले उन्होंने उसकी ताकत को कूतने की प्रतीक्षा भी नहीं की। देश के इतिहास और पूर्वजों की वीर-गाथाओं को पढ़कर प्रताप के मन में विश्वास जम गया था कि अगर भाग्य साथ दे तो, वह दिल्ली के सिंहासन को उलट सकते हैं। एक ओर तो उनकी महत्वाकांक्षा उड़ानें भर रही थी, दूसरी ओर उनका चतुर शत्रु अपनी कूटनीति से उस पर पानी फेरने की कोशिशों में लगा था। अकबर की चालबाजियों के बारे में जानकर स्वाभिमानी प्रताप क्रोध में भर उठे। मुगल सम्राट ने अपनी चालाकी से प्रताप के परिजनों को ही उनके खिलाफ ला खड़ा किया। आम्बेर, मारवाड़, बीकानेर, यहां तक कि हाल तक के उनके पक्के मित्र बूंदी के राजा ने भी साम्राज्यवाद का झंडा उठाने में अकबर का साथ दिया। इतना ही नहीं स्वयं उनके सगे भाई सगरजी ने उनसे नाता तोड़ लिया। इस कुटिलता के पुरस्कार में अकबर ने उसको मेवाड़ की राजधानी, जो उसके अधिकार में आ गई थी, वापस कर दी।
प्रताप उन लोगों में थे जो संकटों को चुनौती मानकर और भी दृढ़संकल्प हो जाते हैं। एक चारण के कथनानुसार उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे अपनी जननी के दूध को नहीं लजाएंगे, और अंतिम क्षण तक उन्होंने इस प्रतिज्ञा का पालन किया। वह अकेले, पच्चीस वर्षों तक, मुगल सम्राट की चालों से जूझते रहे जो कभी उन्हें विनाश और संहार के मैदान में ले जाते, कभी एक चट्टान से दूसरी चट्टान पर भागते फिरने को विवश करते। अपने परिवार को प्रताप ने न जाने कब तक पहाड़ी का फल-फूल खिलाकर रखा। जंगली जानवरों और जंगली आदमियों के बीच वह वीर ‘अमरा’ (अमरसिंह) को अपना योग्य उत्तराधिकारी बनने की दीक्षा देते रहे। यह विचार कि बप्पा रावल का वंशज किसी मानव के आगे सिर झुकाए, उनके लिए असह्य था। आत्मसमर्पण और मुगल शहंशाह के साथ रक्त-संबंध स्थापित करके शांति और चैन का जीवन बिताने के हर प्रस्ताव को उन्होंने घृणा के साथ ठुकरा दिया।
प्रताप को इस बात का श्रेय है कि वह अपने उच्च आदर्शों के लिए बलिदान करने पर अपने प्रजाजनों को इतने वर्षों तक प्रेरित रख सके। उनके सामंतों और प्रजाजनों ने हर प्रकार के कष्ट सहे लेकिन अपने राजा का साथ नहीं छोड़ा। टॉड ने लिखा है कि प्रताप के सरदारों को धन-वैभव का बहत प्रलोभन दिया लेकिन –
यह भी पढ़ें :