
भारतीय परंपरा के विशिष्ट अभिलक्षणों में एक यह भी है कि यह वाक्केंद्रित परंपरा है। वाक्केंद्रित कहने का अर्थ केवल यह नहीं है कि यह मुख्यतः वाचिक है, अंशतः यह बात सही है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी माता-पिता से संतान को या गुरु से शिष्य को सौंपी जाने वाली थाती परंपरा कहलाती है पर यह सौंपना और ग्रहण करना निर्जीव व्यापार नहीं है, सौंपने वाले को सौंपने की क्षमता प्राप्त करनी होती है, ग्रहण करने वाले को ग्रहण करने की।Discovering India | भारत के लोक और शास्त्र एक विशेष प्रकार का तप दोनों के लिए समान रूप से अपेक्षित है, इसके अलावा सौंपने वाले से अपेक्षित है कि वह यह भाव रखे कि वह देने वाला नहीं है, वह इस आशा से दे कि जो दिया जा रहा है, उसमें अभिवृद्धि होगी, लेने वाले से अपेक्षा की जाती है कि पूरी तरह अकिंचन होकर प्रणत भाव से ले। इसलिए वाचिक परंपरा में केवल वाक्य नहीं सोपे जाते, वाक्याथ को ग्रहण करने वाला ध्यान योग और सर्मपण भाव भी सौंपा जाता है। भारतीय परंपरा को वाक्केंद्रित कहने के पीछे एक दूसरा अर्थ भी है।
भारत में संस्थाबद्धता को न्यूनतम महत्व मिला है, चाहे वह संस्था, धर्म-संस्था हो, राज्य-संस्था हो या समाज-संस्था हो। किसी भी धर्माचार्य या किसी भी शासक या किसी भी समुदाय-नायक का महत्व बस इतनी ही दूर तक है कि वह परंपरा की स्मृति सुरक्षित रखता है, वह उसका प्रसार करता है, पर इनमें से कोई भी अंतिम प्रमाण नहीं है। अंतिम प्रमाण है वाक्, तपःपूत वाणी, वह वाणी किसी व्यक्ति या किसी पुरुष की नहीं है, वह सर्वमय हुए द्रष्टा की है, उस द्रष्टा की है जो सब होकर सबको देखता है, संपूर्ण जीवन को देखता है। कोई भी अनुष्ठान हो, उसको पवित्रता मंत्र से, मंत्र की शुद्धता से प्राप्त होती है। मंत्र का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है मनन का साधन, ध्यान का आलंब, ‘धियालंब’। मंत्र संपूर्ण सत्ता का बाह्य या आभ्यंत्तर दोनों प्रकार की सत्ता का एक बौद्धिक अमूर्तीकरण है, इसीलिए उसे दृष्ट कहा जाता है, साक्षात्कार कहा जाता है।
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निरंतर वास्तविकता के साथ मनोदशा बनाए रहने के बाद कहीं उसे शब्द मिलते हैं। जो वेद का प्रामाण्य नहीं स्वीकार करते, वे भी किसी-न-किसी आगम शास्त्र से ही परिचालित होते हैं, बौद्ध, जैन सभी आगमों से निर्देश लेते हैं, संघ और गण बनाकर भी बौद्ध और जैन संप्रदाय एकांततः स्थविर या गणी से अनुशासित नहीं हुए,अनेक और शैव संप्रदाय भी आचार्यों से एकांततः अनुशसित नहीं हुए । इसके तिन की वाणी को महत्व देने की प्रवृत्ति ही काम करती रही। यह ही है कि भक्ति की सगुण और निर्गुण दोनों धाराओं का संयोजक है. कबीर हों, तुलसी हों राम-नाम दोनों की श्वासों में बहता रहता पार्जन शक्ति के केंद्रीकरण को बराबर रोकता रहा है और संस्थाओं के प्रतिरोध करने की शक्ति देता रहा है, यही नहीं, इसी के कारण इस में एक लचीलापन बना रहता है, जड़ता नहीं आने पाती। वेद, पुराण, आगम न चरित , मंगल, पद जैसी नाना प्रकार की अभिव्यक्तियों के माध्यम से और वाकपरंपरा के अनुभवपरक समाकलन के द्वारा गतिशीलता बनी रहती है।
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उस परंपरा के वाहक परंपरा में आत्मसात् होते रहते हैं, उनका कोई निजी इतिहास नहीं बनता। पाणिनि का अर्थ होता है पाणिनीय भाषा-चिंतन परंपरा, व्यास का अर्थ होता है वेदार्थ के उपबृंहण की ओर लोक में उसके प्रसरण की लंबी परंपरा, शंकराचार्य का अर्थ होता है शंकराचार्य की श्रृंखला, देश के चार कोनों से अद्वैत भाव की साधना के जागरूक प्रहरियों की श्रृंखला, गुरु नानक का अर्थ हो जाता है गुरु परंपरा, तुलसी का अर्थ हो जाता है रामलीला की, रामकथा की अनवच्छिन्न धारा। व्यक्ति रूप में इन सबका कोई महत्व नहीं रह जाता। ऐतिहासिकता के नए आग्रह ने इन सबके व्यक्तिगत जीवन को अलग देखने की कोशिश शुरू की है, पर उनकी खोजों से कुछ सूचनात्मक ज्ञान की वृद्धि भले हुई हो, परंपरा की सक्रियता को समझने में कोई विशेष सहायता नहीं मिली है, कभी-कभी तो इन खोजों ने बुद्धि-विभ्रम भी पैदा किया है।
शास्त्रविधि
भारतीय परंपरा जैसा कि बार-बार कहा जा चुका है केवल शब्द नहीं ढोती, और जब ढोती है तो कोई-न-कोई चेतता भी है, स्थाणरयं वेदभारः यह वेदों का भार वहन करने वाला टॅठा पेड है. यह वेदार्थ ग्रहण करने वाली सजीव चेतना नहीं है,परंपरा अर्थग्रहण की एक विशिष्ट प्रक्रिया के साथ शब्दों को तैराती चलती है, जस नदी में दीप तैराए जाते हैं. बाँसों की डालियों पर या पत्तों की दोनियों पर। यह विशिष्ट प्रक्रिया ही शास्त्रविधि है। शास्त्रविधि का अर्थ है शास्त्र से अनुशासन रन का विधि, श्रुति-स्मृतियों और विविध मनिमतों के बीच अन्तर्विरोधों का समाधान ढूढ़ने की विधि। इस विधि का उपदेश मन ने मनस्मति में इस प्रकार नचक्षु से इन सभी वाक्यों को और इनके अर्थों को परखो, इन्हें अपने देशकाल के साथ जोड़ कर देखो , अपने समय के तपःपूत सज्जनों के आचार में कितने प्रतिबिंबित हैं, इसे ध्यान से देखो और फिर अंतिम कसौटी पर कसो , यह तुम्हारे अनुकूल है, कितना यह “आत्मनः प्रियम्” है। बड़ी कठिन कसौटी है यह ‘आत्मनः प्रियम्’ अपने को प्रिय लगना, ऊपर से विशृंखलता लाने वाली कसौटी लगती है; व्यक्ति के मनमानेपन को छूट देने वाली लगती है, पर जब इसे निशान से समझने की कोशिश करते हैं कि ‘आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेती अपने को अनूकूल न लगे, प्रिय न लगे, वह दूसरों के साथ न करे, तब लगता है यह कसौटी कितनी बड़ी है। आपसे कोई झूठ बोले : आपको अच्छा लगेगा, आपको दुर्वचन कोई कहे, आपको अच्छा लगेगा, आपका अधिकार कोई छीने, अच्छा लगेगा तो फिर आपको कैसे अधिकार प्राप्त है कि आप झूठ बोलें, कड़वा बोलें या किसी का अधिकार छीनें। जब तक इस विधि से शास्त्र का अर्थ ग्रहण किया जाए, तब तक शास्त्र पंगु रहता है। शास्त्र और विधि अविभाज्य हैं, जब इनका विभाजन होता है तो ये अर्थहीन हो जाते हैं। ऐसा अनेक बार हुआ है, आज भी हो रहा है, परंतु शास्त्र को जीने वाले व्यक्ति और शास्त्र में अपने को विलीन करने वाले व्यक्ति के माध्यम से शास्त्र पुनः संजीवित होता रहा है। पूज्य स्वामी करपात्री जी से उनके अंतिम दिनों में दो-तीन बार लंबी बातचीत हुई, वे बहुत ही कट्टर सनातनी माने जाते थे, उनसे पूछा कि बहुत तेजी से बदलाव हो रहा है, आचार-पद्धति बदल रही है, क्या सनातन धर्म टिका रहेगा। वे बोले, जिसे जाना है वह काल प्रवाह में चला जाएगा, पर जो जीवन को चलाता है, वह कैसे जाएगा, जो चलाता है और स्वयं संचरणशील है, वही मात्र सनातन धर्म है। यह भी बोले कि शास्त्र कभी नष्ट नहीं होंगे, वे पुनर्व्याख्यात होंगे, हो सकता है पाखंड और विचार से कभी एकदम ढंक उठे जैसा कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा
हरित भूमि तृण-संकुलित, सूझि परै नहिं पन्थ। जिमि पाखंड विवाद तें, लुप्त होंइ सद् ग्रंथ।।
स्वामी करपात्री जी के जीवन की एक घटना का उल्लेख मैं अन्यत्र कर चुका हूँ, पुनः दोहराऊँगा, काशी के अवधूत श्री भगवान राम मोटरगाड़ी से जिस सडक से जा रहे थे, उसी सड़क पर पीछे-पीछे स्वामी जी की गाड़ी आ रही थी। अवधत श्री भगवान राम की गाड़ी खराब हो गई, वे रास्ते में अटक गए। स्वामी ने पछा-आप किधर जा रहे हैं, पता चला वे भी स्वामी जी के गंतव्य स्थान के पास ही जा रहे हैं। स्वामी जी ने अनुरोध किया कि आप हमारी गाड़ी में आ जाएँ। अवधूत बाबा ने परिहास किया, आपकी मोटर में जूता कैसे जाएगा, आप तो खड़ाऊँ पर चलते हैं, स्वामी जी ने तत्काल उत्तर दिया कि संतों की पनही तो हम सिर पर धारण करते हैं, आप चलिए तो सही। अवधूत भगवान राम जी विगलित हो गए। यह कहानी मैंने सिर्फ इसलिए दुहराई कि शास्त्र की जीवंत प्रतिमा स्व. करपात्री जी जैसे व्यक्ति के माध्यम से ही शास्त्र के वास्तविक अर्थ का अनुशीलन किया जा सकता है। संत की पनही सिर पर उठाकर रखने वाला कोई वेदवाक्य नहीं है तो कहाँ से यह विचार चला आ रहा है? निश्चय ही साधना को तप को, आदर देने का भाव ही लोकाचार में इस रूप में परिवर्तित हुआ और शास्त्र की तरह मान्य हो गया। शास्त्रविधि जानने वाले व्यक्ति को इस पक्ष भी ध्यान रहता है। लोक की उपेक्षा करने वाली विधि शास्त्र का निषेध है। पर विधि इतनी समावेशक और इतनी संश्लिष्ट है कि इसे ठीक-ठीक परिभाषित करना संभव नहीं है, पर यह विधि भी वापरंपरा की ही देन है। वाक्परंपरा का आदि स्त्रोत ढूँढ़ना इसी से बड़ा कठिन है। बहुत-से लोकाचार, लोकानुष्ठान और उनके अगंभूत लोकगीत और लोकाख्यान कहीं-कहीं तो वैदिक मंत्रों की गूंज जान पड़ते हैं कहीं-कहीं बहुत-से तांत्रिक अनुष्ठानों की गूंज वहाँ मिलती है। कौन पहले है, कौन बाद में यह निर्णय करना कठिन है, परंतु इस निर्णय की अपेक्षा ही नहीं रखती परंपरा, परंपरा तो संश्लिष्ट है, जिस बिंदु पर है, उस बिंदु पर संपूर्ण है, उसमें कितना प्रतिशत वैदिक है, कितना तांत्रिक, कितना जनजातीय, यह विश्लेषण अनावश्यक है, क्योंकि परंपरा इतिहास से या तिथि क्रम में पुराने-पन से प्रमाणित नहीं होती, वह प्रमाणित होती है वर्तमानता और सफलता से।
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यह बात केवल वैदिक-पौराणिक संदर्भ में ही नहीं लागू होती, बौद्ध परंपरा का ध्यान से अध्ययन करें तो स्थविरयान, महायान और वज्रयान में शाखा-भेद होते हुए भी जब इसका सातत्य भोट (तिब्बती) परंपरा तक प्रसृत होता है तो क्रिया और चर्चा के स्तर पर एकता दिखाई पड़ती है, भोट भाषा में ग्रंथों के अनुवाद के बाद भी मंत्र संस्कृत के ही उच्चरित होते हैं और पूजा का क्रम लगभग वही है जो हिंदू पूजा का है। यही नहीं, जैसी अवधारणा अवतार की पौराणिक धर्म में है, वैसी ही अवधारणा इस परंपरा में विकसित होती है और बुद्ध का निर्माण कार्य केवल लीला मात्र के रूप में देखा जाता है, उनकी बोधि तुषित लोक में पूर्वसंपन्न मानी जाती है। व्यक्ति के रूप में तथागत अनेक बुद्धों में से एक हो जाते हैं। एक प्रकार से बुद्ध धर्म में ही समाविष्ट हो जाते हैं। एक दूसरी बात भी बौद्धधर्म के विकास में संलक्ष्य होती है कि वेदवाक्य का प्रामाण्य स्वीकार न करते हुए भी यह परंपरा उसके अध्ययन क्रम को जारी रखती है, उसको वैचारिक स्तर पर स्वीकृति देती है। महायान संप्रदाय में जिस सुजाता ने बोधि के पूर्व खीर खिलाई थी, सन सालभर तक भगवान बुद्ध की बोधि संपन्न हो, इसके लिए 108 ब्राह्मणों से वेदपाठ कराया था। इसी प्रकार जैन परंपरा में भी राम और कृष्ण की कथाएँ अनुस्यूत हो जाता हैं। प्रारंभ से भी हुआ हो इन सभी परंपराआ में और प्राकृत भी सस्में – जसे भी हुआ हो इन सभी परंपराओं में तर्क विचार और कर्मकांड की एक ही संस्कृत रह जाती है ।
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